नवां दिनः नवम् नवरात्रा।
तारीखः 22nd Oct 2015
तिथिः षुक्ल नवमी
पूजा का समय: प्रातःकाल से।
नवें दिन की दुर्गाः- सिद्धिदात्री है।
यह नवां दिन माँ सिद्धिदात्री दुर्गा की पूजा के लिए विषेष महत्त्वपूर्ण है माँ भगवती ने नवें दिन देवताओं और भक्तों के सभी वांछित मनोरथों को सिद्धि कर दिया जिससे माँ सिद्धिदात्री के रूप में सम्पूर्ण विष्व में व्याप्त हुई। परम करूणामयी सिद्धिदाती की अर्चना व पूजा से भक्तों के सभी कार्य सिद्धि होतें हैं। बाधाएं समाप्त होती हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
माँ की परम करूणामयी मूर्ति का रूप इस ष्लोक से स्पष्ट हैः-उपरोक्त षोडषोपचार विधि से नवें दिन भी पूजा बडे श्रद्धा भक्ति से की जाती हैं और स्थापित कलष, दीप और अन्य प्रतिष्ठित वेदियों और देवी प्रतिमा में पूर्व दिन में अर्पित किए गए पुष्पादि सामग्री उतार लें और उपरोक्त क्रम को दोहराते हुए श्रद्धा, भक्ति पूर्वक हांथ जोड़कर पूजा आराधना तथा हवन व आरती करें और पूजा सम्पन्न होने के बाद प्रसाद आदि वितरित करें और नव कन्याएं एक बालक को हलुआ पूरी आदि का भोजन करा कर उन्हें यथा षक्ति दक्षिणा व कपड़ो का दान दें। नवरात्रि के व्रत का पारण दषमी के दिन यदि नवमी तिथि की वृद्धि हो रही हो तो पहली नवमी का व्रत कर दसवें दिन पारण (व्रत खोलने) का विधान है। नवरात्रा व्रत की विधि यहीं सम्पन्न होती है।
व्रत की कथाः- माँ दुर्गा द्वारा रक्तबीज, महिषासुर आदि दैत्यों का बध आदि षक्ति माँ दुर्गा की जयकार और भक्त तथा देवगणों की रक्षा व कल्याण। इसी कल्याण के उद्देष्य से प्रतिवर्ष नवरात्रों में माँ की पूजा आराधना व यज्ञानुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। दुर्गा सप्तसती माँ की आराधना का सबसे प्रमाणिक गं्रथ है।
नवरात्रों का प्रारम्भ और व्रतः- नवरात्रों में कलष स्थापना व व्रत का प्रारम्भ अमावस व प्रतिपदा में नहीं बल्कि प्रतिपदा युक्त द्वितीया में करना चाहिए। नव दिनांे तक व्रत करने से ही नवरात्र व्रत होते हैं तिथि का क्षय और उसकी वृद्धि होने पर पर भी नव दिनों तक व्रत रखने का प्रमाण है। इसके लिए प्रातः काल का समय और अभिजित मुहूर्त उत्तम माना गया है। चित्रा, वैधृति नक्षत्र होने में कलष स्थापना नही व पूजा नहीं करनी चाहिए। किन्तु यदि अभिजित नक्षत्र और प्रातः का समय इनसे वेध हो रहा हो तो षास्त्रों का मत है, कि ऐसी स्थिति में इन्हीं नक्षत्रों मे कलष स्थापन व पूजन किया जाता है।व्रत या पूजा का प्रारम्भः- प्रातःकाल षौच स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर उपरोक्त पूजा हेतु निष्चित पवित्र वस्त्र धारण कर उपरोक्त पूजन सामग्री व श्रीदुर्गासप्तषती की पुस्तक को ऊँचे व सुन्दर आसन में रखकर षुद्ध आसन मंे पूर्वाविमुख या उत्तराभिमुख होकर प्रसन्नता व भक्तिपूर्वक बैठकर माथे पर चन्दन लगाएं, पवित्र मंत्र बोलते हुए पवित्री करण, आचमन, करन्यासादि करें। इसके बाद श्रीगणेषादि देवताओं, गुरूजनों व ब्रह्मणों को प्रणाम करें।
इसके बाद हाथ में कुष की पवित्री, लालपुष्प, अक्षत, जल, स्वर्ण, चाँदी आदि की मुद्राओं द्वारा पूजा व व्रत का संकल्प लें। फिर षड़ोषपचार विधि से पूजा करें।नोटः- पाठ गलत या अषुद्ध न करें न ही बहुत धीरे न ही बहुत जल्दी अर्थात् मध्यम गति से सुस्पष्ट उच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए। क्योंकि मंत्रों के गलत उच्चारण से पूजा का फल नहीं प्राप्त होता और अनिष्ट की आषंका बनी रहती है। दुर्गासप्तषती व अन्य पूजाकर्म पद्धति की किताबें जो षुद्ध रूप में और किसी प्रमाणित प्रेस आदि से प्रकाषित हो उन्हीं को प्रयोग में लाना चाहिए।
कुछ उपयोगी मंत्र या सम्पुटः-व्रत में क्रोध, आलस्य, चिंता नहीं करें। प्रसन्न चित्त व उत्साह पूर्वक माँ की पूजा करें। किसी बात में अविष्वास व संदेह न पैदा करें। नित्यादि क्रियाएं षुद्धता पूर्व करें, स्नान में सुगन्धित तेल, साबुन यदि संभव हो तो प्रयोग न करें। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करें, अर्थात् मैथुन आदि क्रियाएं न करें।
स्त्री/पुरूष प्रसंग, हास्य विनोद, अत्याधिक बोलना, जोर से हंसना, गुस्सा करने से बचें। सरल और षांति चित्त होकर व्रत का पालन करें। जल्दी-जल्दी पानी पीना और हर थोड़ी देर में खाने से भी बचें। दिन में सोना नहीं चाहिए, बल्कि कार्यो से निवृत्त होने पर जरूरत के अनुसार थोड़ा विश्राम करना चाहिए।