चैथा दिनः चतुर्थ नवरात्रा
तारीखः 17th Oct 2015
तिथिः षुक्ल चतुर्थी
पूजा का समय: प्रातःकाल से।
चैथे दिन की देवीः- माँ कूष्माण्डा हैं।
जिन माँ भगवती के उदर मे सम्पूर्ण त्रिविधि ताप युक्त यह संसार स्थित है, वे माँ कुष्माण्डा नाम से इस जगत में व्याप्त हैं। यह परम कल्याणमयी माँ का रूप है जो सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा मोक्ष प्रदायक व भक्तजनों के कठिन व असाध्य दुःखों को नष्ट करने वाला हंै। इनकी पूजा अर्चना से सुख समृद्धि प्राप्ति होती है।
माँ की मूर्ति यह चतुर्थ रूप इस ष्लोक से स्पष्ट हैः-उपरोक्त षोडषोपचार विधि से पूजा चैथे दिन भी की जाती हैं और स्थापित कलष, दीप, और अन्य प्रतिष्ठित वेदियों और देवी प्रतिमा में पूर्व दिन में चढ़ाई गयी पुष्पादि साम्रगी उतार ले और उपरोक्त क्रम को दोहराते हुए श्रद्धा, भक्ति पूर्वक हांथ जोड़कर पूजा आराधना का क्रम दोहराएं तथा आरती करें और पूजा सम्पन्न होने के बाद प्रसाद आदि वितरित करें।
व्रत की कथाः- माँ दुर्गा का चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा है। ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और जीवों में माँ की कृपा से ही तेज का संचार हो रहा है यह परम षक्ति और सूर्य लोक मे निवास करने वाली हैं, माँ का तेज सूर्य के समान देदीप्यमान और भास्वर है। ब्रह्मण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है, माँ की यह मूर्ति अष्टभुजाओं वाली हैं जिनके हाथों में कमण्डल, धनुष, बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलष, चक्र, गदा, और सिद्धियों और निधियों को देनेवाली जपमाला है। माँ का यह स्वरूप सिंहारूढ़ है। यह स्वरूप रोग, षोक, और षत्रु विनाषक है तथा आरोग्यता, आयु, बल, कीर्ति को बढ़ाने वाला है। माँ दुर्गा द्वारा रक्तबीज, महिषासुर आदि दैत्यों का बध आदि षक्ति माँ दुर्गा की जयकार और भक्त तथा देवगणों की रक्षा व कल्याण। इसी कल्याण के उद्देष्य से प्रतिवर्ष नवरात्रों में माँ की पूजा आराधना व यज्ञानुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। दुर्गा सप्तसती माँ की आराधना का सबसे प्रमाणिक गं्रथ है।
व्रत या पूजा का प्रारम्भः- प्रातःकाल षौच स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर उपरोक्त पूजा हेतु निष्चित पवित्र वस्त्र धारण कर उपरोक्त पूजन सामग्री व श्रीदुर्गासप्तषती की पुस्तक को ऊँचे व सुन्दर आसन में रखकर षुद्ध आसन मंे पूर्वाविमुख या उत्तराभिमुख होकर प्रसन्नता व भक्तिपूर्वक बैठकर माथे पर चन्दन लगाएं, पवित्र मंत्र बोलते हुए पवित्री करण, आचमन, करन्यासादि करें। इसके बाद श्रीगणेषादि देवताओं, गुरूजनों व ब्रह्मणों को प्रणाम करें।
इसके बाद हाथ में कुष की पवित्री, लालपुष्प, अक्षत, जल, स्वर्ण, चाँदी आदि की मुद्राओं द्वारा पूजा व व्रत का संकल्प लें। फिर षड़ोषपचार विधि से पूजा करें।नोटः- पाठ गलत या अषुद्ध न करें न ही बहुत धीरे न ही बहुत जल्दी अर्थात् मध्यम गति से सुस्पष्ट उच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए। क्योंकि मंत्रों के गलत उच्चारण से पूजा का फल नहीं प्राप्त होता और अनिष्ट की आषंका बनी रहती है। दुर्गासप्तषती व अन्य पूजाकर्म पद्धति की किताबें जो षुद्ध रूप में और किसी प्रमाणित प्रेस आदि से प्रकाषित हो उन्हीं को प्रयोग में लाना चाहिए।
कुछ उपयोगी मंत्र या सम्पुटः-